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श॒युः प॒रस्ता॒दध॒ नु द्वि॑मा॒ताऽब॑न्ध॒नश्च॑रति व॒त्स एकः॑। मि॒त्रस्य॒ ता वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śayuḥ parastād adha nu dvimātābandhanaś carati vatsa ekaḥ | mitrasya tā varuṇasya vratāni mahad devānām asuratvam ekam ||

पद पाठ

श॒युः। प॒रस्ता॑त्। अध॑। नु। द्विऽमा॒ता। अ॒ब॒न्ध॒नः। च॒र॒ति॒। व॒त्सः। एकः॑। मि॒त्रस्य॑। ता। वरु॑णस्य। व्र॒तानि॑। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:29» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

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पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (परस्तात्) दूसरे देश में (शयुः) व्याप्त होकर शयन करनेवाला (द्विमाता) दो वायु और आकाश माता हैं जिस अग्नि के वह (अबन्धनः) जो बन्धनरहित वह (वत्सः) पुत्र के सदृश वर्त्तमान (एकः) सहायरहित (नु, चरति) शीघ्र चलता है (अध) इसके अनन्तर जो (देवानाम्) विद्वानों का (महत्) बड़ा (एकम्) सहायरहित तेज (असुरत्वम्) फेंकनापन (ता) वे (व्रतानि) सत्यभाषण आदि कर्म (मित्रस्य) मित्र और (वरुणस्य) सबमें उत्तम और संसार के प्रबन्ध करनेवाले परमात्मा के हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो कुछ इस संसार में सूर्य्य आदि वस्तु और जो इस संसार में अनेक प्रकार की रचना हैं और जो विचित्ररूप स्वाद आदि वर्त्तमान है और सब अपने-अपने मण्डल में घूमते हैं, प्रलय से प्रथम नहीं नष्ट होते हैं, वे ये परमात्मा के कर्म हैं, यह जानना चाहिये ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

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अन्वय:

हे मनुष्या यः परस्ताच्छयुर्द्विमाताऽबन्धनो वत्स इवैको नु चरत्यध यद्देवानान्महदेकमसुरत्वं चरति ता व्रतानि मित्रस्य वरुणस्य परमात्मनः सन्तीति वेद्यम् ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शयुः) योऽभिव्याप्य शेते (परस्तात्) परस्मिन् देशे (अध) अथ (नु) (द्विमाता) द्वे वाय्वाकाशौ मातरौ यस्याऽग्नेः सः (अबन्धनः) यो बध्नाति तद्भिन्नः (चरति) गच्छति (वत्सः) पुत्रइव वर्त्तमानः (एकः) असहायः (मित्रस्य) सृहृदः (ता) तानि (वरुणस्य) सर्वोत्तमस्य जगत्प्रबन्धकस्य (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि कर्माणि। व्रतमिति कर्मना०। निघं० २। १। (महत्) (देवानाम्) विदुषाम् (असुरत्वम्) प्रक्षेप्तृत्वम् (एकम्) असहायं तेजः ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यत्किञ्चिदत्र जगति सूर्य्यादि वस्तु या अत्र विविधा रचनाः सन्ति यच्च विचित्ररूपं स्वादादिकं वर्त्तते सर्वे स्वस्वपरिधौ भ्रमन्ति प्रलयात्प्राक् न विनश्यन्ति तानीमानि परमात्मनः कर्माणि सन्तीति वेदितव्यम् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! या जगात सूर्य इत्यादी वस्तू व अनेक प्रकारची रचना आहे तसेच विविध रूप, स्वाद इत्यादी आहेत ते सर्व आपापल्या मंडलात फिरतात व प्रलयापूर्वी नष्ट होत नाहीत. हे परमात्म्याचे कर्म आहे, हे जाणावे. ॥ ६ ॥